09 December, 2025

एक हिज्र का ठंढा सियाह पत्थर है। कलेजे पर रक्खा हुआ।

मुझे चीज़ों को महसूसने की अपनी इंटेंसिटी से डर लगता है। बहुत गहरा प्यार। बहुत ज़्यादा दुख। बहुत टीसता हुआ बिछोह। मैंने अपने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा अपने इमोशंस को समझने और बहुत हद तक उन पर कंट्रोल करने में उलझाया है। ये ऐसे जंगली जानवर हैं कि जिन्हें पालतू नहीं बनाया जा सकता। इनके लिए गहरे, अंधेरे, ख़ामोश तहख़ाने बनाए जाते हैं और इन्हें क़ैद कर के रखा जाता है। इन्हें कहा जाता है कि बहुत दिन तक अच्छा व्यवहार करने वाले क़ैदियों को जिस तरह खिड़की वाली कोठरियों में डाला जाता है…उसी तरह मैं उन्हें भी खुले मैदान वाली जेल में भेज दूँगी। मैं कहती हूँ कि वहाँ से चाँद दिखता है।

दो बाय दो बाय छह फुट की कोठरी में जिस खतरनाक इश्क़ को रखा गया है उसने सूरज तो क्या चाँद भी कई सालों से नहीं देखा। जीने की उम्मीद छोड़ वो गहरी नींद में चला गया है…एक क़िस्म का सोया हुआ मासूम ज्वालामुखी। इनोसेंट स्लीपिंग वॉल्कैनो। कबसे किसी ने उसका नाम नहीं पुकारा। उसने फुसफुसाहट तक नहीं सुनी। उसके सपने में तुम्हारी आवाज़ का कतरा आता है…पहाड़ से लौटती हुई आवाज़ की तरह। लेकिन तुमने मेरा नाम नहीं पुकारा है…सड़क के इस छोर से मैं कहती हूँ…बाऽऽऽऽय और दूसरी ओर से तुम हाथ हिलाते हो…तुम्हारे होंठ हिले हैं…लेकिन इस बीच दमकल का सायरन बज गया है…तुम्हारे होंटों के हिलने से लगता है बाऽऽऽऽऽऽय ही कहा होगा तुमने…हो सकता है तुमने मेरा नाम पुकारा हो…क्या मालूम…ये दमकल मेरे दिल में लहक कर जलते हुए इश्क़ को बुझाने के लिए दुनिया वालों ने भेजा होगा…इतनी आग में तुम्हारा पूरा शहर जल कर राख हो जाता।

तुम्हें मालूम, तुम्हारी आवाज़ के एक कतरे से दिल के तहखाने का ताला खुल सकता है…तुम्हारा एक वॉइस नोट है, उसमें सबसे चहकते हुए तुम ‘बाय’ कहते हो। जैसे कि तुम्हें पूरा यकीन हो कि हम जल्द मिलेंगे।
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ट्रॉमा। किसी से बात नहीं कर सकते इस बारे में। फ़िल्म देख कर आए। उसमें धनुष के किरदार का नाम शंकर है…बता रहा है उस बेवकूफ लड़की को, जो असल में इतनी बेवकूफ हो, इम्पॉसिबल है…लेकिन सच में, ऐसे लोग होते तो हैं...उन्हें अपने सिवा कुछ नज़र ही नहीं आता दुनिया में। पीएचडी करती हुई लड़की, मुक्ति...उसका सब्जेक्ट है कि वायलेंस अपेंडिक्स की तरह है, इसे पूरी तरह से शरीर से काट कर निकाला जा सकता है। मुश्किल विषय है, तो उसके प्रोफेसर बोलते हैं जब तक कोई प्रूफ नहीं दिखेगा, क्रेडिबल...यह एक्सेप्ट नहीं होगा। मुक्ति ने शंकर को अपना सब्जेक्ट बना लिया है। कि इस लड़के के अंदर बहुत गुस्सा है…उसने एक बार भी ठीक से जानने की कोशिश नहीं की है कि ट्रॉमा का सोर्स असल में क्या है, कितना गहरा है, कितना कॉम्प्लिकेटेड है…वायलेंस है तो क्यों है…नफ़रत है तो कितनी है…फ़िल्म ही सही, लेकिन हीरोइन है, मेन करैक्टर है...वो इतनी सेल्फिश और इतनी सेल्फ-सेंटर्ड कैसे हो सकती है। थीसिस पर साइन हो गया है। शंकर। आदमी है…ज़िंदा, धड़कता हुआ सामने…आँखें भर आई हैं…कहता है, “मेरी माँ का नाम कावेरी था…मैं दस साल का था, जब वो वो एक पाँच साल के बच्चे को बचाने में जल कर मर गई। कि ग़रीब आदमी हो तो उसकी माँ 20% बर्न्स में भी मर जाती है…कि मेरी खाल जलती है…सब जगह…यहाँ यहाँ यहाँ…लेकिन तुम साथ होती हो तो कम जलता हूँ…” उसकी आँखें भर आई हैं। शायद वह पहली बार किसी के सामने इस तरह वल्नरेबल हुआ है। इस मोमेंट मुक्ति सामने खड़ी है उसके...कोई उसे बुलाता है...वह मुड़ कर देखती है, और अबीर कहती हुई उस लड़के की और दौड़ती है और उसे हग कर लेती है। 

बारिश हो रही है…मुक्ति के दौड़ के जाने से वह चूड़ी टूट गई है, जिसे पकड़ कर शंकर उससे बात कर रहा है। मैं देखती हूँ, कि यहाँ भी उसने छुआ नहीं है उसे...उसका हाथ नहीं पकड़ा है...उसकी चूड़ी पकड़ी है...वह सही तो कहता है, वायलेंट होने के बावजूद 99% लड़कों से अच्छा है वो। 

मेरे भीतर एक बवंडर उठा हुआ है। यह डायलॉग डिलीवरी आत्मा में घबराहट की तरह बसती है। कहते हैं बर्न्स से हुई मृत्यु सबसे तकलीफ़देह मृत्यु होती है। मैं इस डायलॉग को सुनती हुई भीतर तक काँप जाती हूँ। लेकिन फ़िल्म देखते हुए नहीं कह सकती कुछ भी। किसको। क्या कहें। जिसने जिया है, उसके सिवा कोई नहीं जान-समझ सकता है। ट्रॉमा एक शब्द नहीं है…ज़िंदगी के कैनवास की सारी आउटलाइन बदल देता है। हम फिर इससे बाहर रंग भर ही नहीं सकते।

PTSD कहते हैं। Post Traumatic Stress Disorder.

एक बार एक दोस्त ने पूछा था, किसी ने तुमसे कहा नहीं, ये लो मेरा रूमाल…और ये रहा मेरा कंधा…तुम्हें जितना रोना है, रो सकती हो। हमारे यहाँ कंधे पर गमछा रखते हैं लोग। पापा के बेस्ट फ्रेंड थे, पत्रलेख अंकल। मेरी ज़िंदगी के पहले हीरो। पापा हॉस्टल लाइफ की अपनी कहानी सुनाते थे। कि कैसे वो प्याज़ लहसुन नहीं खाते थे…तो कुक को बोल कर सिर्फ़ दाल भात और भुजिया खा लेते थे। पत्रलेख अंकल को लगा बिना प्याज लहसुन खाने वाला लड़का ज़िंदगी में कैसे सर्वाइव करेगा तो कुक को बोल कर दाल में  लहसुन से तड़का लगवा दिए…क्या ही उमर थी उस समय…शायद 11th-12th या शायद कॉलेज फर्स्ट ईयर में आए होंगे…हमको याद नहीं, पर पापा भर आँख आँसू से रोने लगे…अंकल घबरा गए, अरे, रोता काहे है…और उस दिन जो अंकल पापा के लिए हुए…अपनी आख़िरी साँस तक रहे…उनके लिए और मेरे लिए भी। हमारे पैरों के नीचे की ज़मीन, हमारी आँखों के ऊपर का आसमान। हम किनसे कितना प्यार करते हैं, उनको हमेशा बता थोड़े पाते हैं। हम अपने किसी चाचा से भी कभी इतना प्यार नहीं किए जितना अंकल से करते रहे। ज़िंदगी भर।

मार्च में देवघर गए थे। वहाँ से लौटने की फ्लाइट रोज़ तीन बजे दोपहर को होती है। देवघर एयरपोर्ट से कुसुमाहा आधा घंटा-बीस मिनट की दूरी पर है। हम बोले थे कि फ्लाइट के पहले मिलने आयेंगे गाँव। लेकिन उस रोज़ फ्लाइट बारह बजे की थी। हफ़्ते में एक दिन फ्लाइट का समय दोपहर दिन नहीं, बारह बजे होता है। मुझे मालूम नहीं था। इतवार का दिन था। मैंने ठीक घर से निकलते टाइम देखा कि फ्लाइट के लिए लेट हो गए हैं। अंकल को फ़ोन किए कि आ नहीं पायेंगे। और ज़िंदगी हमारे हिस्से ऐसे अफ़सोस लिखती है। घर में खाना बनवा के रखे थे मेरे लिए। भात दाल बचका, बहुत अच्छा दही…बहुत कुछ और…लेकिन हम हड़बड़ में एयरपोर्ट चले गए मिले बिना। तुरंत ही लौटना था, एक अप्रैल को जाना था कुसुमाहा, पूजा में…लेकिन पापा का कैटरेक्ट का ऑपरेशन हुआ था और डॉक्टर डाँट के ट्रैवल मना कर दिया। हमको लगा, ठीक है। एक आध महीने में चले जाएँगे। एक अप्रैल को माँ कुसुमेश्वरी का पूजा हुआ…सब परिवार और गांव का लोग आया…सीने में दर्द से अंकल देर रात नींद से उठे, घर से निकले गाड़ी में, हॉस्पिटल के लिए…दोनों बेटे साथ में थे…लेकिन हॉस्पिटल पहुँचने के पहले उनका दिल जवाब दे गया था। उनके ज़िंदा रहते जो हम और पापा डॉक्टर की बात मान कर पूजा में नहीं गए…कि महीना भर का बात है, उसके बाद जाते रहेंगे देवघर। लेकिन ख़बर आते ही अगले दिन पापा के साथ देवघर निकल गए थे, जानते हुए कि अंतिम बार उनको देख भी नहीं पायेंगे। हमें वहाँ होना था बस। जबकि जाने वाला जा चुका था। 

हम ज़िंदगी के उस दौर में आ गए हैं, जहाँ से लोग जाना शुरू कर चुके हैं। दोस्तों के माता-पिता। अपने जीवन के बड़े भाई-बहन। चाचा-चाची। 

मार्च में छोटी सी गाड़ी ख़रीदे थे देवघर में। स्विफ्ट। बस घर से सोलह किलोमीटर दूर कुसुमाहा आने जाने के लिए। अंकल आंटी से मिलने जुलने के लिए। साल में कई बार दिल कलपते हुए सपने से जागता है। यूकलिप्टस के पेड़ों से ढका हुआ रास्ता…जहाँ अंकल से मिलने जाना था…खाली लगता है। सुलगता है। आँख में धुआँता है। विक्रम भैया से बात करते हैं। बादल भैया से बात करते हैं। हम जहाँ पले-बढ़े हैं...ऐसे दुख में भी तड़पते हुए किसी के सीने पर सर नहीं रख सकते...चुपचाप कोने में बैठ के रोते हैं। बहुत बहुत साल बाद मिले...बीस पच्चीस साल बाद लगभग। अंकल सिर्फ अपने नहीं थे...उनके घर से सब लोग अपने ही घर के लोग थे। आशा दीदी, सरिता मौसी। बचपन की बातें। मम्मी की। उनके लड़कपन के दिन। वे सब कॉलेज आया-जाया करती थीं जब। घर पर पेंटिंग वगैरह सीखती थीं। उन्हें याद था कि हम बचपन में कैसे थे। हमको याद था यह प्यार, जो जाने कबसे हमारे हिस्से नहीं आया था। 

हम लोग जब छोटे थे, हर साल नानीघर जाते थे - पटना। देवघर से पटना ट्रेन में जनरल डिब्बे में। उन दिनों रूमाल या गमछा रख देने से सीट बुक हो जाती थी। ट्रेन आते ही लोग खिड़की से रूमाल अंदर डालने के लिए दौड़ते थे।

दिल पर भी ऐसे ही रूमाल रखा रहता है। इंतज़ार में।
कई कई साल।

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बच्चों को कोई बात समझाने के पहले ख़ुद को समझानी पड़ती है। पैरेंटिंग की कोई एक गाइड बुक नहीं होती। सबका अपने-अपने हिसाब से सही ग़लत होता है। मैं बच्चों को समझाना चाहती हूँ कि प्यार और आज़ादी दोनों ज़रूरी हैं। कि हम किसी से प्यार करते हैं तो हमको ये समझना पड़ेगा कि उनको ख़ुशी किस चीज़ से मिलती है…भले उन्हें जिस चीज़ से ख़ुशी मिलती है, उससे हमें फ़िक्र हो या दुख हो…हमें उन्हें वो काम करने से रोकना नहीं चाहिए…Love is the ability to set someone free. That our love should not be a shackle, but a home to come back to. ये कॉन्सेप्ट समझना उनके लिए जरूरी है और मुझे उन्हें ठीक से समझाना जरूरी है। लेकिन हम ख़ुद को ही कहाँ समझा पाते हैं अच्छे से। इस साल एक भी सोलो ट्रिप पर नहीं गए। बेटियां मुझे miss करती हैं, और मैं उनको। The most important part of parenting is to get them ready for a world in which I am not there.

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मेरे भीतर अभी भी बहुत भटकाव है। सतत बदलती दुनिया में जाने किस चीज़ पर ठहरती हूँ। भोर के चार बजने को आए। चौदह डिग्री दिखा रहा है मोबाइल पर। असल में ठंढ दस डिग्री के आसपास की होगी। पहले तल्ले पर खिड़की के पास डेस्क है। खिड़की से बाहर गोल्फ कोर्स दिखता है। वहाँ छोटे से पौंड में सामने वाले घर की परछाई काँपती दिखती है। पानी की वो परछाई एक अलग दुनिया है। एकदम अँधेरी रात है। बादल होंगे, तारे नहीं दिख रहे। खिड़की बंद कर दें ठंढी हवा नहीं आएगी भीतर, पर मालूम नहीं खिड़की खुली रखने की आदत छूटती नहीं। स्वेटर तो पहने हैं, लेकिन गर्म पजामे और मोजे नहीं हैं। पैर में ठंढ लग रही है। लैपटॉप के दोनों तरफ़ कैंडल जला लिए हैं। लिखते लिखते रुकते हैं तो हाथ लौ पर रख लेते हैं।

एक कैंडल का नाम तो वैसे ग्रीन बेसिलिकम है लेकिन महक रहा है पुटूस की तरह। पुटूस माने बचपन। छिले हुए घुटनों पर पुटस के पत्तों का रस लगा लिए, हो गया। उस समय की जादू जड़ी बूटी थी ये। मेरे हाथ पाँच साल की लड़की के हो गए हैं। जिसको पेंसिल छीलने, चौक का चूरा बनाने और होमवर्क भूल जाने की आदत थी। थोड़ा बड़े होने पर कबड्डी और बुढ़िया कबड्डी खेलते थे। किसी को उठा कर पटक देने में कितना मजा आता था। मिट्टी का रंग, स्वाद, गंध, टेक्सचर…सब पता था। सूखी, गीली, लाल मिट्टी। भूरी मिट्टी। काली मिट्टी। मुल्तानी मिट्टी।

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बॉलीवुड इतना होपलेस क्यों है? कोई भी डायरेक्टर या स्क्रिप्टराइटर इतना ख़राब किरदार क्यों रचता है। हम इस तरह की बॉलीवुड हीरोइनों और हीरो से थक गए हैं। Women having the god-complex, जहाँ वे किसी को बचाने के लिए जान दिए हुए हैं, बिना देखे कि किसी को बचाये जाने की इच्छा या ज़रूरत है भी या नहीं। साइकोलॉजी में पीएचडी कर रही है और ख़ुद में एमपैथी नाम की कोई चीज़ नहीं। अगर किसी सब्जेक्ट(व्यक्ति) को चुना है, तो थोड़ी तो प्रोफेशनल ईमानदारी रखनी थी। अगर वायलेंस की रूट कॉज तक जा रही है तो उसको इतनी सी बेसिक समझ नहीं है कि कोई इस तरह का इमोशनली अन्स्टेबल व्यक्ति प्यार जैसे किसी इमोशन से कितनी गहराई से जुड़ेगा, कितनी इंटेंसिटी से कुछ भी महसूस करेगा। एक एक्स्ट्रा ट्रॉमा देना और उसको लेकर कोई ग्लानि, कोई शर्म, कोई झिझक और ईमानदारी तो छोड़ दें, बेसिक इंसानियत, ह्यूमैनिटी तक नहीं है। रिसर्च अप्रूव हो गया है, लड़का अपनी माँ के बारे में बता रहा है…पहली बार खुला है। शायद किसी के पास पहली बार अपना दुख कह रहा है। मुक्ति एक झटके में वहाँ से दौड़ कर दूसरे लड़के के गले लग जाती है। अगर वह अबीर से प्रेम करती, तो मुझे यह सीन फिर भी क्षम्य लगता क्यूँकि प्रेम में होने पर आप बाक़ी लोगों की भावनाओं से ऊपर अपनेआप को रखते हैं। लेकिन वह तो सिर्फ़ दोस्त था। तो ऐसे व्यक्ति के पास दौड़ कर अगर चली भी गई है तो लौट कर शंकर तक ठीक उसी समय आना था। उसकी फीलिंग को वैलिडेट करना था। कितना आसान है कहना, तुम ना नहीं सुन सकते थे। इस लड़की ने कभी उसे ठीक-ठीक एक इंसान की तरह न देखा, न समझा…स्वार्थी हो कर, सिर्फ़ अपना पीएचडी अप्रूव करवाया। वो भी झूठा। मेरा ख़ून खौल जाता है ऐसी फिल्में देख कर। एयरफोर्स को मज़ाक़ बना दिया है। कोई पायलट मेंटली अन्स्टेबल है तो वहाँ उससे ठीक से काउंसलिंग करने की जगह इमोशनल ब्लैकमेल किया जा रहा है। उसके भीतर गुस्सा है…और वो एक ऐसा एयरफोर्स पायलट है, जिसको सिर्फ़ लड़ना है…इस तरह की बातें करने के बावजूद उसे प्लेन उड़ाने की परमिशन के काग़ज़ पर साइन कर दिया गया है। उसकी ड्यूटी पहले देश, फिर अपनी बटालियन, फिर अंत में ख़ुद के लिए होती है। यही अभी तक की वॉर मूवीज़ में देखा है।

मुझे लगता है, ऐसा नियम होना चाहिए कि आर्मी/नेवी/और एयरफोर्स ऑफिसर्स के बारे में कोई भी फ़िल्म बनाने के पहले अप्रूवल लिया जाये ताकि नियम/कानून का मजाक न बने। एयरफोर्स में प्रोटोकॉल्स होने की कई वजहें हैं। क्रिएटिविटी के नाम पर कहानी कुछ भी बना दे रहे हैं।

मैंने फ़िल्म देखी धनुष की लाजवाब एक्टिंग के लिए। हिंदी फ़िल्म में तमिल डायलॉग्स देख देख कर मेरा तमिल सीखने का मन करने लगा है। फ़िल्म में बनारस है। हम सोचते हैं, बनारस आते नहीं जब तक कि बुलावा नहीं आता। मैं आधे सपने में हूँ...ये कौन सी अल्टरनेट दुनिया है। मैं तुम्हारे साथ नाव पर बैठी हूँ। शोर बहुत है। सामने मणिकर्णिका घाट है...कहते हैं यहाँ की आग कभी नहीं बुझी। 

मुझे लगता है, हम-में कोई धागा है, जन्मपार का बँधा हुआ। फ़िल्म में कहता है, मुक्ति नहीं मिलेगी। ना इस जन्म ना कभी भी और। प्रेम में सिर्फ़ मृत्यु है। मैं नाव पर हूँ। सियाह धुआँ उठ रहा है। मेरी आत्मा में कुछ उमड़ रहा है। कोई गाँठ खुल रही है। एक सिरा तुम्हारे भीतर है इस धागे का। मुझे पक्का यकीन है, हम कई जन्म एक दूसरे से मिलते रहे हैं। 

दिसंबर में इतने सारे प्यारे लोगों का जन्मदिन है। अब गिफ्ट वगैरह में मजा नहीं। मजा है कि इस दिन वाक़ई अपने पसंद के लोगों के साथ समय बिता सकें। उन्हें मिलें तो जोर की जादू की झप्पी दें और कहें। तुमसे जादू है। मेरी कहानी का। मेरा। मेरी दुनिया में बने रहना, तुम्हारे होने से सब जगमग जगमग है। सब मीठा है। और अगर जाओगे तो मीठा खाने का मजा चला जाएगा। फिर हम अपने खुली गाड़ी में चाँद ताकते, सिगरेट फूंकते तुम्हें इतना याद करेंगे कि हिचकी लेते लेते थक जाओगे। 
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इंडिगो के प्लेन कैंसिल होने के कारण उस शादी में नहीं जा पाये, जिसमें जाने का, क़सम से बहुत बहुत बहुत मन था। और अगर ये भसड़ नहीं होती, तो पक्के से होते। लेकिन ऐसे केस में डर लगता है अकेले जाने से, तो गए नहीं। मुझे भीड़ से डर लगता है, चीज़ें जहाँ uncontrolled हों, वहाँ बहुत ज़्यादा। 

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बेवकूफ लड़का, हमसे कहता है...हमारी शकल ही ऐसी है वरना प्यार नहीं होता लड़कियों को हमसे। ये साल २०२५ का आख़िरी महीना है। लड़कों को अब भी समझ नहीं आता, प्यार में शकल का कोई काम नहीं होता। मुहब्बत होती है ख़ुशबू से, किसी की मुस्कान से...उसके लाये फूल से...उसकी लिखी चिट्ठी से...उसके भेजे उलाहने से...उसकी समझदारी से...

प्यार होता है तकलीफ़ से। 
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मन फिर से अंगकोर वात जाने का हो रहा है। 
मन पागल है। 

पिछले छह सालों में ये चौथा घर है। इतना सारा सामान बांधना, फिर से खोलना। ये घर मेरे लिए एकदम परफेक्ट था। सब कुछ अपनी जगह सही। लिखने वाली जगह के आसपास बहुत से पेड़ पौधे। सुबह कई तरह की चिड़ियों की चहचहाहट। हवा में नाचती विंड-चाइम। खुला आसमान।

एक ठंढ है जो भीतर से तारी है।
एक हिज्र का ठंढा सियाह पत्थर है। कलेजे पर रक्खा हुआ। 

17 November, 2025

तुम्हें पता है, There is only one absolute unit of longing, loneliness and love. ‘बस यूँ ही, तुम्हारी आवाज़ सुनने का मन कर रहा था।'

निष्कवच 
कर्ण ने बदन से छील कर उतारा था कवच...दान में देने के लिए। कैसे देवता थे वे, जिन्होंने कवच दान में माँग लिया! मैं दिल का कवच ऐसे ही उतार दूँ छील के?   

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आज एक नए कैफ़े में आई हूँ, बहुत सुंदर नाम है इसका। Paper& Pie. आगा शाहिद अली की कविता Stationery की एक पंक्ति है, The world is full of paper, write to me. काग़ज़ से बहुत लगाव है। इतना कि इस दुनिया को इसलिए आग लगाने का मन नहीं करता कि कभी कभी लगता है ये दुनिया काग़ज़ पर लिखी हुई है, शायद। इसे पानी में तैरने वाली नाव बनना है आख़िर को।
पेपर ऐंड पाई। 

कुछ दिन पहले ऑफिस के एक पुराने कलीग से मिलना था, तो उसके घर के पास की जगह गए थे। उसने इस कैफे का पता दिया था, कि अच्छी जगह है। हम हड़बड़ में मिले थे। एक घंटा टाइप्स…बोला, अगली बार फुर्सत में मिलेंगे। और हम कहे, कि फुर्सत नहीं मिलेगी कभी…इतना भी मिल लेंगे तो ठीक है। कैफ़े की थीम सफेद थी। कैरमेल कलर का फर्नीचर। शोर नहीं। कम्फर्टेबल। अच्छा लगा।

हर नाम का एक क़िस्सा होता है। हमको इस किस्से से हमेशा मतलब क्यों होता है? इस कैफे के नाम के साथ के लोगो था। जैसे स्टारबक्स का लोगो एक साईरन(siren) है…इन दिनों नई कंपनी के नाम, लोगो वग़ैरह के बारे में सोच रहे, रिसर्च कर रहे। दिमाग़ में यही सब चल रहा था। इंदिरानगर के कैफे में पहली बार आए थे…इसी लोगो का एक फोटो खींच कर दोस्त को भेजा। उसने पूछा ये क्या है? और हमने कहा कि प्रूफ कि लोगो से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। कुछ भी रख लो नाम, कैसा भी बना लो लोगो।

आज बहुत साल बाद इंदिरानगर ऐसे इत्मीनान से आए हैं। यहाँ पहली बार घर था…दस साल रही उसी घर में। भयंकर नास्टैल्जिया घेरता है। मैं इस इलाक़े के सभी पेड़ों को पहचानती हूँ। फूलों के मौसम में कहाँ फूल आयेंगे, वो भी। सारी गालियाँ, सारे चौराहे, आसमान का हर टुकड़ा चीन्हा हुआ लगता है। कभी-कभी उस लड़की की याद आने लगती है जो यहाँ अठारह साल पहले आई थी। दिल्ली के अपने सारे प्यारे दोस्तों को छोड़ कर…उस एक लड़के का हाथ थामे जिससे मुहब्बत की थी। चमकीले, रूई के फाहे की तरह हल्के दिन थे…घर में कोई फर्नीचर नहीं था। हम वाक़ई दो बक्से लेकर आए थे। कपड़े और किताबें, बस…और ढेर सारा प्यार। एक नए शहर में नई शुरुआत करने।

जिस घर में रह रही हूँ, एक साल भी नहीं हुआ है। मकान-मालिक ने खाली करने कह दिया है। बात सही है, मकान-मालिक है। जब उसका मन करे, खाली करने को बोल सकता है। लेकिन ऐसे दो बच्चे, सास, एक पति-पत्नी…बड़ा सा परिवार है, बहुत सारा सामान…चार कमरों का घर है। किराया भी बहुत ज़्यादा है। इस घर में 3000sq.ft. के आसपास का अपना लॉन है। बच्चों को बहुत अच्छा लगता था यहाँ से वहाँ दौड़ते रहते थे दिन भर। बड़े शहरों में अपना गार्डन या लॉन होना तो एकदम ही मुश्किल है। इतने सालों में ऐसे खुली ज़मीन वाला कोई घर नहीं देखा कभी। विला के सामने गोल्फ कोर्स है। सुबह सूरज उगता हुआ दिखता था…बच्चे धूप में कुनमुना के उठते थे। गहरे गुलाबी रंग की बोगनविला थी। विंडचाइम नाचती रहती थी, अक्सर। उसकी धुन नींद में झूलती रहती। गार्डन में एक ओर बार बना हुआ है, उसके सामने छोटा सा पौंड है…गोल्फ कोर्स के लिए। लेकिन वहाँ सुबह-सुबह कभी कभी लिखने बैठती थी। धुंध में। ठंढ में। चाँदनी रात में स्टडी टेबल से चांद उगता हुआ दिखता था। कई बार सूरज उगने के टाइम-लैप्स बनाए। ये ऐसा घर था, जिसमें कुछ साल इत्मीनान से रहने का मन था। अपने से ज़्यादा, बच्चों के लिए। ये उनके दौड़ने-भागने-खेलने कूदने के दिन हैं। सभी दोस्तों के बच्चे आते थे तो सबको खूब मन लगता था। पर ठीक इसलिए है, कि जो चीज़ अपनी नहीं, उससे ज़्यादा लगाव क्यों होना…शायद ज़्यादा दिन रुक जाते, तो ज़्यादा दुखता। अभी तो इतनी सुंदर जगह रह रहे हैं, इसका यक़ीन भी ठीक से नहीं हुआ था। सपने जैसा ही लगता था कई बार। कुछ ऐसा इत्तिफ़ाक़ रहा कि बच्चों के जन्म के छह साल में चौथे घर में जा रहे हैं। जिससे भी बात करेंगे, अपना घर ख़रीदने की तरफ़दारी करेगा…कि जैसा भी हो, घर अपना होना चाहिए।

कुँवर नारायण की एक कविता है, बहुत सुंदर। कई साल पहले अनुराग को ज़िद कर के कुछ लिखने को कहा था, तो यही कविता काग़ज़ पर लिख के दी थी उसने…उस दिन भी दुखा था इसे पढ़ना। शायद उन दिनों वह भी घर शिफ्ट कर रहा था। फ़िलहाल, याद नहीं…लेकिन यह कविता आज शाम से मन में घूम रही है…

कभी कभी इतना बेघर हो जाता है मन
कि कपड़े बदलते हुए भी लगता है
जैसे घर बदल रहा हूँ
- कुँवर नारायण

इस साल दिवाली बहुत सुंदर थी। घर पर सब के सो जाने के बाद दिल शुक्रगुज़ार था। तो मकान मालिक को एक लंबा, सुंदर सा मेसेज लिखा। जान-पहचान के सभी लोगों का कहना है कि उसी मेसेज के कारण मक़ान मालिक ने घर ख़ाली करने को कहा है। पता नहीं कैसे, पर सबको इस तरह की फीलिंग समझ में आती है, सिवाए मेरे। कि कोई उनके घर में रह कर इतना ख़ुश है, उसे इस घर की अच्छी चीज़ों से फ़र्क़ पड़ता है…कोई घर की हर छोटी-बड़ी चीज़ को नोटिस करता है, उससे जीवन में आई सुंदरता को लेकर शुक्रगुज़ार है…मेरा ये acknowledgement ही उन्हें अच्छा नहीं लगा। हम सोचते रहते हैं, कि दुनिया इस तरह की हो जाएगी तो हम बदल तो नहीं जाएँगे। कितनी कम बार होता है कि आपको कुछ अच्छा लगे और आप उन्हें बता पायें। कितनी ज़्यादा बार होता है कि कुछ अच्छा लगे, कोई अच्छा लगे तो आप चुप ही रहते हैं। Status-quo जो मेंटेन करना होता है। जबकि ज़िंदगी में बदलाव के सिवा कुछ भी परमानेंट नहीं है, लोग बदलाव से इतना डरते हैं कि हर बदलाव को बुरे की तरह ही सोचते हैं…जब कि बदलाव अच्छे के लिए भी तो हो सकता है, या कि कुछ अलग के लिए ही हो जाये…इसे अच्छे-बुरे के काले-सफेद में न बाँटें। हमने जितने घर बदले हैं, हर बार पिछले घर से कुछ अलग, कुछ बेहतर, कुछ सुंदर ही मिला है। शायद सिर्फ़ बदलाव की बात नहीं है, बात है कि हमारी मर्जी से नहीं हो रहा। फिर ऐसे समय पर हो रहा है जब बहुत कुछ ऐसे ही बदल रहा होता है…साल ख़त्म हो रहा होता है, नए साल के नए प्लान्स बन रहे होते हैं। छुट्टी मनाने जायेंगे…फिर लौटते ही घर बदलना होगा। ऐसे में छुट्टी पर जाने की जगह घर में रह कर खूब सी पार्टी करने का मन कर रहा। एक तरह का क्लोजर। पता नहीं क्या। कोई अफ़सोस न बाक़ी रहे।

ये साल बहुत तेज़ी से बीता। बहुत व्यस्त रही, पारिवारिक चीज़ों में। सीखा यह कि जो मिला है, उसमें संतोष होना चाहिए। कि सब कुछ तो किसी को भी नहीं मिलता। तो कुछ न कुछ तो रहेगा ही अफसोस के खाते में। फिर, न चाहते हुए भी इतने अफ़सोस जमा हो गए हैं दिल में, लिखने चलें तो बचा हुआ जीवन कम पड़ जाये। फिर क्या मालूम, कितना जीवन बचा है। Camus कहते थे, जीवन में सब कुछ absurd है। कुछ भी प्लान नहीं कर सकते। Camus की मृत्यु एक कार एक्सीडेंट में हो गई थी। वे सिर्फ़ 46 साल के थे। उनके साथ उनका पब्लिशर भी था। 

One must imagine Sisyphus happy.
- Camus


बदलाव के साथ, ज़िंदगी में होने वाली सारी अब्सर्डिटी समझते हुए, हम फिर भी खुश रह सकते हैं…छोटी छोटी चीज़ों में। ख़ुशी कोई अल्टीमेट डेस्टिनेशन नहीं हो सकता। रोज़ की छोटी-छोटी चीज़ें अगर हमें ख़ुशी नहीं दे सकतीं तो हम कुछ भी हासिल कर लें, हमेशा कुछ और चाहिए होगा। मैं बेटियों को भी सिखाने की कोशिश करती हूँ, कि चाह का कोई अंत नहीं। जो सुंदर है, जो पास है, जो अपना है…उसके लिए खुश रहें तो ख़ालीपन कहीं होगा ही नहीं…और बिना खालीपन के उदासी रहेगी कहाँ?

मैंने लैवेंडर वाली चाय ऑर्डर की…कप से भाप उठ रही थी। उसपर हथेली रखी तो पुरानी कहानी की पंक्ति याद आई, उसकी शिराएँ लैवेंडर रंग की हैं। कितनी सुंदर कलाई थी, काटने में दुख हुआ था, कहानी में भी। चाय पीते हुए सोचती रही, शाम से कितनी काली कॉफ़ी पी रखी है, याद नहीं। कड़वाहट नहीं आती ज़ुबान पर, न दिल में। जाने कैसे हो गया है दिल इतना फॉरगिविंग।

हाँ, मुझसे छूट गया है तुम्हारा हाथ। लेकिन यही कायनात है, इक रोज़ सिगरेट पीते हुए सोचा था, मैं तुम्हारा हाथ पकड़ना चाहती हूँ और कायनात ने मान लिया था। पिछली बार डेंटिस्ट के पास गई थी तो सोच रही थी, ख़ुशी का कोई ऐसा इंटेंस लम्हा नहीं है कि इमोशनल एनेस्थीसिया की तरह काम कर सके। तो कायनात ने सोचा, कुछ लम्हे लिख दे मेरे हिस्से में।

मुझसे छूट गया है तुम्हारा हाथ। लेकिन मुझे मालूम है तुम्हारे ब्रांड की सिगरेट, तुम्हारा फ़ेवरिट कलर और तुम्हारे पसंद की ड्रिंक। मन करे तो मैं भी विस्की पी कर आउट हो सकती हूँ। मन करे तो कहानी में तुम्हें रख सकती हूँ सहेज कर। कि मेरे पास हैं ऐसे शब्द जिनमें से तुम्हारी ख़ुशबू आती है।

तुम्हें पता है, there is only one absolute unit of longing, loneliness and love.
‘बस यूँ ही, तुम्हारी आवाज़ सुनने का मन कर रहा था।’

19 October, 2025

Tight hugs. Unforgettable goodbyes. Normal days. Grateful heart.

अल्टरनेट वर्ल्ड।

आपको कभी ऐसा लगा है, किसी एक मोमेंट…कि यह सीन हमारी दुनिया का है ही नहीं…हमने अपनी अभीप्सा से कई हज़ार रियलिटीज़ वाले ब्रह्मांड से वो एक यूनिवर्स चुन ली है जहाँ यह हिस्सा होना था और वहाँ की जगह, ये हिस्सा हमारी इस यूनिवर्स में घटेगा…
कि चाह लेने से हमारी दुनिया बदल जाती है…भले पूरी की पूरी न सही और सारे वक्त न सही, लेकिन किसी छोटे वक़्फ़े सब कुछ ठीक वैसा होगा कि आपको आपकी मर्जी का एक लम्हा मिल जाये…
बशीर बद्र हमारे मन के स्याह में झाँकते हैं…गुनाहों के सीले कमरों में भी थोड़ा उजास होता है…मन आख़िर को वह क्यों माँगता है जो उसे नहीं माँगना चाहिए…वो लिखते हैं हमारे बारे में…

मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है
मैं हर लम्हे में सदियाँ देखता हूँ
तुम्हारे साथ एक लम्हा बहुत है

सब कुछ किसी को कहाँ मिलता है। कभी।

लेकिन किसी को हग कर रहे हों, तो आँखें बंद कर सकें…थोड़ा इत्मीनान, थोड़ी सी मोहलत, और अपराधबोध न फील करने की आज़ादी, शायद सब को मिलनी चाहिए। शायद सबको, तो फिर किसको नहीं मिलनी चाहिए?

पता नहीं। कुछ तो होते होंगे, गुनाहगार लोग…जिन्हें सज़ा मिली हो, कि जब भी किसी को हग करो…आँखें बंद नहीं कर सकोगे। कि It will always be a fleeting hug. कि तुम्हें हमेशा हज़ार लोग घूर रहे होंगे। कि मेला लगा होगा और उस मेले के बीच चलते मेट्रो स्टेशन पर तुम्हें किसी को गले लग कर अलविदा कहना होगा। कि उस जगह रुक नहीं सकते। कि अगली मेट्रो आने ही वाली है। कि हर बार बिछड़ना, मर जाना ही तो है। ग़ालिब ने जो कहा, जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे, जैसे कि क़यामत का, होगा कोई दिन और!

***

क्रश। पहली बार इस शब्द के बारे में पढ़ा था, तो किसी चीज़ को थूरने-चूरने के अर्थ में पढ़ा था। लेकिन समझ आने के कुछ ही दिनों में इसका दूसरा और ज़्यादा ख़तरनाक…वैसे तो मेटाफोरिकल, लेकिन बहुत हद तक सही शाब्दिक - लिटरल अर्थ समझ आया था। ‘क्रश’ उसे कहते थे जिसे प्यार नहीं कह सकते थे। थोड़ा सा प्यार। प्यार की फीकी सी झलक भर। लेकिन जानलेवा।

ये वो नावक के तीर थे जो गंभीर घाव करने वाले थे। इनसे बचने का कोई जिरहबख़्तर नहीं बना था।
इश्क़ को रोकने का जिरहबख़्तर होता भी नहीं…हम उसके बाद क्या करेंगे, अर्थात्…अपने एक्शन/कांड पर भले कंट्रोल रख लें…महसूस करने पर कोई कंट्रोल काम नहीं करता। अक्सर अचानक से होता है।

जैसे रात को तेज गाड़ी चलाते हुए, इकरार ए मुहब्बत का पहला गाना, ‘तुम्हें हो न हो, मुझको तो, इतना यकीं है…कि मुझे प्यार, तुमसे…नहीं है, नहीं है…’ अचानक से बजाने का मन करे। रात के साढ़े तीन-पौने चार हो गए थे। भोर साढ़े पाँच की फ्लाइट थी, किसी भी तरह साढ़े चार तक उड़ते-उड़ते एयरपोर्ट पहुंचना ही था। कुछ चीज़ों में जीवन बहुत प्रेडिक्टेबल रहा है। कुछ चीज़ों में बेतरह प्रेडिक्टेबल। मुहब्बत की हल्की सी ही थाप होती है दिल पर, इन दिनों। उसे पता है, दरवाज़ा नहीं खुलेगा…लेकिन मुहब्बत ढीठ है, थेथर है…एक बार पूछ ज़रूर लेती है, हम आयें? हम अपने-आप को दिलासा देते हुए गुनगुनाने लगते हैं, मुझसे प्याऽऽर तुमसे, नहीं है...मगर मैंने ये आज अब तक न जाना...कि क्यों प्यारी लगती हैं, बातें तुम्हारी, मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूँढूँ बहाना...

खैर, अच्छा ये हुआ कि फ्लाइट छूटी नहीं। 
***

सुबह ज़ुबान पर कड़वाहट थी, पर मन मीठा था।
There is something about almost chain-smoking through the night. While not being drunk. एक नशा होता है जो अपने लोगों के साथ देर तक बतियाने से चढ़ता है। एक मीठा सा नशा।

सिगरेट का धुआँ मन के कोने-कोने पैठता जाता है। इसे समझाना मुश्किल है कि हमें क्या क्या सुनाई पड़ता है और क्या समझ आता है। ध्यान दो अगर, और रात बहुत गुज़र चुकी हो…सन्नाटे में जब सिगरेट का सिरा जला कर कश खींचते हैं तो तंबाकू के जलने की आवाज़ आती है, बहुत महीन, बहुत बारीक…जैसे किसी का हाथ छूटते हुए आप ज़ोर से न पकड़ें, बल्कि हौले से किसी के हाथ के ऊपर अपनी हथेली फिरा लें…वो बह जाये आपसे दूर, किसी पहाड़ी नदी के पानी की तरह।

फिर से कहते हैं न कि दुनिया में सब कुछ तो किसी को नहीं मिलता।

हम ज़्यादा नहीं चाहते। पर शायद इतना, कि किसी को hug करते हुए इतनी फुर्सत हो और इतनी तसल्ली कि आँखें बंद कर सकें। कि हड़बड़ी में न हग करें किसी को, जैसे कि दुनिया बर्बाद होने वाली है। बैंगलोर की भयंकर तन्हाई में इस एक चीज़ की कमी से मेरी जान जाने लगती है। दिल्ली जाती हूँ तो दोस्त बिछड़ते हुए दो बार गले मिलते हैं। एक बार तो अभी के लिए, और एक बार कि जाने कितने दिन बाद फिर मिलेंगे, एक बार और hug करने का मन है तो कर लेते हैं।

अक्सर हम उन लोगों के प्रेम में पड़ते हैं जिनमें हमारे जितनी गहराई होती है। लेकिन कभी कभी हम कुछ बेवकूफ के लड़कों के गहरे इश्क़ में गिरफ़्तार हो जाते हैं। जिन्हें शायरी सुनाओ तो फिर उसका मतलब समझाना पड़ता है। क्या कहें किसी से कि, ‘यूँ उठे आह उस गली से हम, जैसे कोई जहाँ से उठता है…तुम्हारी गली देखनी थी, तुम्हारा घर, तुम्हारे घर के पर्दे…उसे कैसे समझायें कि मुझे तुम्हारे घर की खामोशी से मिलना था। तुम्हारी खिड़की से आसमान को देखना था। इस जरा सी मुहब्बत का ठिकाना दुनिया में कहीं नहीं होता। कि बेवकूफ लड़के, जब हम कहते हैं कि, ‘इश्क़ एक मीर भारी पत्थर है, कब ये तुझ नातवाँ से उठता है’, तो इसका मतलब यह नहीं है कि बॉडी-बिल्डिंग शुरू कर दो। इसका मतलब हम तुम्हारे हक़ में दुआयें पढ़ रहे हैं कि इश्क़ का भारी पत्थर उठाने के लिए तुम्हारा दिल मज़बूत हो सके…फिर हमारे जैसी तो दुआ क्या ही कोई माँगता होगा, कि तुम्हें इश्क़ हो...भले हमसे न को, किसी से हो...लेकिन तुम्हारा दिल जरा ना नाज़ुक रहे। आँख थोड़ी सी नम। 

देख तो दिल कि जाँ से उठता है, ये धुआँ सा कहाँ से उठता है…

देख रहे हैं आसमान। धुएँ के पार। तुम्हारी किरमिच सी याद आती है। तुम्हारी इत्ती सी फ़िक्र होती है। मैं कुछ नहीं जानना चाहती तुम्हारे बारे में…लेकिन कहानी का कोई किरदार पूछता है तुम्हारे बारे में, कि अरे, उस लड़के का बचपन किस शहर में बीता था, तुम्हें याद है? मैं कहानी के किरदार को बहलाती हूँ, कि मुझे कुछ न मालूम है तुम्हारे बारे में, न याद कोई। कि दूर से मुहब्बत आसान थी, लेकिन इतनी आसान भी कहाँ थी।

दिल्ली जाते हैं तो जिनसे बहुत ज़ोर से मिलने का मन कर रहा होता है, ये कायनात उन्हें खींच कर ले आती है दिल्ली। हम बहुत साल बाद इकट्ठे बैठे उसकी पसंद की ड्रिंक पी रहे हैं। ओल्ड मौंक विथ हॉट वाटर। उसके पसंद का खाना खा रहे हैं। भात, दाल, आलू भुजिया। जाने कितने साल हो गए उसकी ज़िंदगी में यूँ शामिल और गुमशुदा हुए हुए। वीडियो कॉल पर ही देखते थे उसको। एक साथ सिगरेट फूंकते थे। सोचते थे, जाने कौन सा शहर मुकम्मल होगा। कि हम कहेंगे, हमारी सिगरेट जला दो। कि you give the best welcome hugs and the most terrible goodbye hugs. कि इतनी छोटी ज़िंदगी में तुमसे कितना कम-कम मिले हैं।

स्वाद का भी गंध के जैसा डायरेक्ट हिट होता है, कभी कभी। कभी-कभी इनका कोई कनेक्ट नहीं होता। एक पुराना दोस्त गोल्ड-फ्लेक पीता था। यूँ तो गाहे बगाहे कई बार गोल्ड फ्लेक पिए होंगे, उसकी गिनती कहाँ है। लेकिन कल शाम गोल्ड फ्लेक जलायी और पहले कश में एक अलविदा का स्वाद आया। सर्द पहाड़ों पर बहती नदी किनारे घने पेड़ होते हैं, उन सर्पीली सड़कों पर गाड़ी खड़ी थी। गुडबाय के पहले वाली सिगरेटें पी जा रही थीं। कभी कभी कोई स्वाद ज़ुबान पर ठहर जाता है। इत्ती-इत्ती सी सिगरेट, लेकिन कलेजा जल रहा था। मन तो किया पूरा डिब्बा फूँक दें। और ऐसा भी नहीं था कि फ्लाइट मिस हो जाती, बहुत वक्त था हमारे पास। लेकिन ये जो सिगरेट के धुएँ से गाढ़ा जमता जा रहा था दिल में कोलतार की तरह। उसकी तासीर से थोड़ा डरना लाज़िमी था। मेरे पास अभी भी वो पीला कॉफ़ी मग सलामत है जो उसने ला कर दिया था। उसके हिस्से का मग। जाने कैसे वो मिल गया था अचानक। यूँ मेरे हिस्से का तो वो ख़ुद भी नहीं था।

***
मुहब्बत में स्पर्श की करेंसी चलती है। यहाँ बड़े नोटों का कोई काम नहीं होता। यहाँ रेज़गारी बहुत क़ीमती होती है। कि सिक्के ही तो पॉकेट में लिए घूमते हैं। यही तो खनखनाते हैं। इन्हें छू कर तसल्ली कर सकते हैं कि कोई था कभी पास। 

स्पर्श को संबंधों में बांटा नहीं जा सकता। हम किसी का हाथ पकड़ते हुए ये थोड़े सोचते हैं कि वो हमारा प्रेमी है या मित्र है या कोई छोटा भाई-बहन या कि अपना बच्चा। हम किसी का हाथ पकड़ते हुए सिर्फ़ ये सोचते हैं कि वो हमारे लिए बहुत क़ीमती है और दुनिया के मेले में खो न जाये। हम उसक हाथ पकड़े पकड़े चलते हैं। झूमते हुए। कि हमें यकीन है कि भले कई साल तक न मिलें हम, इस फ़िलहाल में वो सच में हमारे पास है, इतना टैंजिबल कि हम उसे छू सकते हैं।

दिल्ली की एक दोपहर हम सीपी में थे। दोस्त का इंतज़ार करते हुए। लंच के लिए। गाड़ी पार्क करवा दिए थे। उसके आने में टाइम था, सोचे सिगरेट पी लेते हैं। तो एक छोटा बच्चा बोला, दीदी हमको चाय पिला दो। नॉर्मली हम चाय तो पीते नहीं। लेकिन वो बोला कि पिला दो, तो उसके साथ हम भी पी पीने का सोचे…दो चाय बोल दिए। आइस-बर्स्ट का मेंथोल और चाय में पड़ी अदरक…ऐसा ख़तरनाक कॉम्बिनेशन था कि थोड़े से हाई हो गए। फिर सोचे कि दिल्ली में यही हाल तो रहता है, हवा पानी का असर मारिजुआना जैसा होता है। कितना मैजिकल है किसी शहर से इतना प्यार होना।

***

हम इन दिनों बिखरे बिखरे से रहते हैं। तसल्ली से लेकिन। किसी चीज़ की हड़बड़ी नहीं होती। सिवाए, जनवरी के आने की... और कभी कभी, अब तो, वो भी नहीं लगता। 

96 फ़िल्म में एक सीन है। जानू, राम के घर आई हुई है। वे बारिश में भीग गए थे, इसलिए उसने नहाने के बाद राम की ही शर्ट पहनी है। भूख लगी है तो जानू ने खाना बनाया है। अपनी अपनी थाली में दोनों खाना खा रहे हैं। राम उससे पूछता है, तुम खुश हो...सीन में तमिल में पूछता है, सबटाइटल्स इंग्लिश में हैं लेकिन उस एक सीन में मुझे तमिल समझ आने लगती है। जानू कहती है, हाँ हाँ, बहुत ख़ुश हूँ...राम कहता है, बेवकूफ, अभी नहीं। ऐसे...जीवन में। जानू ठहर जाती है...और उसका जवाब होता है, कि संतोष है। 

मुझसे मेरे करीबी जब पूछते हैं, कि क्या लगता है, तुम्हें जो मिला, वो तुम डिजर्व करती हो...तो हम ठीक ठीक नकारते नहीं। कि डिज़र्व तो क्या ही होता है। जो दुख मिला, क्या वह हम डिजर्व करते थे...तो फिर सुख की यह जो छहक आई है हमारे हिस्से, इसे सवाल में क्यों बाँधे? क्यों न जियें ऐसे कि जिस ऊपर वाले के हाथ में सब कुछ है, वो हमारा हमसे बेहतर सोच रहा है। कि सुख और दुख साइक्लिक हैं। कि फ़िलहाल, हमारे पास बहुत है। और जो थोड़ा नहीं है, सो ठीक है। कि सब कुछ दुनिया में किसी को भी कहाँ मिलता है। कि चाह लो, तो जितना चाहते हैं...और जितने की सच में जरूरत थी। उतना तो मिल ही जाता है। 

***
मुझे लिख के ख़ुशी मिलती है। हम खूब खूब लिखते हैं। 
लेकिन इन दिनों डायरी से शुरू कर के मैकबुक तक आते आते समय पूरा हो जाता है। इसलिए कई सारी चिट्ठियाँ पेंडिंग हैं। कई सारी कहानियाँ भी। कुछ लोग हैं जिनसे मिलने का बहुत मन है। लेकिन वे दुनिया के दूसरे छोर में रहते हैं। 

***
ख़ुशी के बारे में सबसे अचरज की बात ये हैं कि बहुत कम लोग हैं जिन्हें सच में पता होता है कि उन्हें किस चीज़ से ख़ुशी मिलती है। वे कभी ठहर के देख नहीं पाये, सोच नहीं पाये कि उनका मन कब शांत रहता है। कब उन्हें कहीं और भागने की हड़बड़ी नहीं होती। किस से मिल कर किसी और की कमी महसूस नहीं होती। 

ख़ुद को थोड़ा वक़्त देना गुनाह नहीं है। ख़ुद को थोड़ा जानना समझना। भले आपको लगे कि आप मेटामॉर्फ़ोसिस वाला कीड़ा हैं...लेकिन आईने में देखिए तो सही :) क्या पता आपको मालूम चले, आप बैटमैन हैं :D

Happy Diwali. 
अपना मन और आपका घर रोशन रहे।

24 March, 2025

जादू टूटता भी तो है।

There are monsters inside my heart. Every couple of days or months I need to go on a holiday to let them lose in the wilderness of solitude. They graze upon silent hours and come back to their cell, voluntarily. When I fail to do so, they keep ramming against the bars of my heart. I live, anxiously. Afraid the bars are not strong enough, and maybe, not even my heart. 


Everyone tells me I should be thankful and grateful to the universe that has given me everything. I am, eternally grateful. Yet, I don’t understand the insane desire to get away. क्या इसे ही मन से आवारा होना कहते हैं। क्या एक सुंदर घर बसाना मुझे कभी नहीं आयेगा? क्या हम सुख से भाग रहे हैं?


मन इतना अशांत क्यों होता है?


आज मन बहुत विरक्त हुआ है सुबह से ही। स्विमिंग नहीं गए। वरना थोड़ा यह सोच कर अच्छा लगता है कि मन का कोई इलाज नहीं है लेकिन एक घंटा तैर लेने के कारण शरीर होता बेहतर रहेगा। एड्रेनलिन पंप हो जाता है तो एनर्जी लेवल ठीक रहता है दिन भर। लेकिन गए नहीं। हाई बीपी की दवाई चलनी शुरू हुई है। जैसे ही ये दवाई शुरू होती है, दो चीज़ें होती हैंमन एकदम शांत हो जाता है, इतना कि जैसे आइलैंड के आसपास का समंदर होता हीउसमें कोई लहरें नहीं उठतीं। और दूसरी चीज़ कि बहुत नींद आती है, इतनी थकान और आलस कि दिन भर सोने के सिवाये कोई काम करने का मन नहीं करता। कोई किताब पढ़ने का का कहीं घूमने या घर का और कोई भी काम करने का। Procrastination मोड में चला जाता है। 


हम जो हमेशा फाइट या फ्लाइट के मोड में रहते हैं, दिमाग़ एक तरह से हार मान जाता हैऔर कुछ भी नहीं करता। 


गाहे बगाहे यूँ भी होता है कि दिल में दर्द उठने लगता है। मुझे समझ नहीं आता कि क्यों। डेढ़-दो साल पहले कार्डियोलॉजिस्ट को दिखाया था, उस समय सब कुछ ठीक था। फिर ऐसे रहे-रहे दर्द और हॉट-फ़्लैश क्यों होते हैंऐसा लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है, लेकिन ठीक-ठीक समझ नहीं आता कि कहाँ। क़ायदे से, हॉस्पिटल जा के फुल-बॉडी चेक-अप कराना चाहिए, लेकिन हम जानते हैं कि हमको एक लंबी छुट्टी चाहिए। सोच ये भी नहीं पा रहे कि अकेले जायें या किसी दोस्त के साथ। 


अजीब उलझन है। समझ नहीं आता। अकेले रहना है या किसी दोस्त के साथ। घर पर बच्चों को छोड़ कर सोलो ट्रिप पर जाते हैं तो भयंकर गिल्टी भी फील होता है। मॉम-गिल्ट से कैसे पार पाती हैं औरतें पता नहीं। इतना ज़्यादा सेंसिटिव क्यों ही होनाफिर ये भी तो है कि ख़ुद को एकदम से विरक्त कर भी पाते तो क्या कर ही लेते। 


मुझे फिक्शन के टुकड़े लिखने में सबसे ज़्यादा खुशी मिलती थी। कोई एक किरदार, यूँ सामने नज़र से गुज़र गया। जितना सा उस समय दिख पाया, उतना सा ही लिख पाये। पिछले कुछ सालों में ढूँढ ढूँढ कर अपने पसंद की औरतों के लिखने के किस्से पढ़े। कि शायद कोई रास्ता मिले, लेकिन उन्होंने लिखा नहीं है इस बारे में। इस्मत की काग़ज़ी है पैरहन पढ़ते हुए दो चीज़ों को जाने की हुलस थी, वो कैसे लिखती हैं और लिखते हुए जो जीवन में सवाल आते हैं इस इमेजिनरी के लिए, उसके लिए ख़ुद को कैसे तैयार या डिफेंड करती हैं। उनके लिखे में ये दोनों नहीं मिला मुझे। एलिस मुनरो अच्छी लगती रहीं, उनकी कहानियों का ट्विस्ट, उनकी कहानियों के किरदारलेकिन जब से जाना कि उन्होंने अपनी नाबालिग बेटी के सेक्सुअल असॉल्ट को कहानी में बरता लेकिन अपने उस पति के साथ रहीं और बेटी को भी नहीं बचायातब से चाहने के बावजूद उनकी कहानियाँ नहीं पढ़ पा रही। लेखन और लेखक का जीवन अलग होता है, लेकिन जब लेखक का कोई fatal flaw इस तरह से उजागर होता है तो फिर हम उस लगाव के साथ उसे नहीं पढ़ पाते। नेरूदा के बारे में जान कर ऐसा ही कुछ हुआ था। अब भी उनका लिखा पसंद आता है लेकिन फिर भी उससे मन उस तरह से नहीं जुड़ पाता। जैसे बाहर की हवा लगने के बाद मूढ़ी थोड़ा मेहा जाता है, उसका खनक चला जाता है तो खाने में उतना मजा नहीं आता। लेखक ऐसा ही होता हैएकदम खनकता हुआ होना चाहिए। ये लाइन कहाँ खींची जानी चाहिए, भगवान जानेकुछ लोगों को ये भी बहुत बुरा लगता है कि कोई लेखक सिगरेट-शराब पीता है या किसी ख़ास राजनीतिक विचारधारा का है या उसके कई प्रेम-संबंध रहे। मेरे लिए ये सब मायने नहीं रखताअधिकतर किसी की कला को उसके व्यक्तित्व से अलग रख कर देखने की कोशिश करते हैं। यह भी तो है कि ग़लतियाँ और गुनाह तो सबके होते हैं। 


यूँ भी गलती के हिसाब से सज़ा बराबर की होती है, ना माफ़ी।  


आज एकदम कहीं मन नहीं लग रहा था। मॉल में स्टारबक्स में बैठी हूँ। सामने एस्कलेटर लगे हुए हैं। कोई बच्चा नीचे आने वाले एस्कलेटर पर ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है। उसे मजा रहा एक-एक सीढ़ी ऊपर चढ़ने पर भी नीचे आने में। हम भी अक्सर ऐसा ही करते हैं नासमय का एस्कलेटर हमें फ्यूचर में ले जा रहा होता है और हम समय की उलट दिशा में, अतीत में पीछे जा रहे होते हैं। जानते हुए कि ये ख़तरनाक है। कि हमें चोट लग सकती है। और ये भी कि आख़िर को हमें आगे ही जाना पड़ेगा। हम छोटे से बच्चे हैं। बहुत तेज दौड़ने वाले धावक नहीं कि एस्केलेटर की दुगुनी स्पीड से चढ़ाई पर दौड़ सकें और ऊपर जा सकें। उस स्थान पर जहाँ एक एस्कलेटर ऊपर रहा, एक नीचे की ओर जा रहा है। 


सुबह एडोलोसेंस देखने की कोशिश की। थोड़ी देर देखने के बाद हिम्मत नहीं हुई। छोटे बच्चों को एक्टिंग में देखना दुखता है। मालूम है ये एक्ट कर रहे हैं, फिर भी। क्यूंकि एक्टिंग करना किसी और के जिए हुए को थोड़ी देर को ही सही, जीना होता है। 


लिखते हुए थोड़ी देर को हम किसी किरदार का ग़म-ख़ुशी अपने भीतर महसूस कर रहे होते हैं। बहुत साल पहले जब इश्क़ तिलिस्म लिख रही थी तो उसमें दादी सरकार का किरदार था। एक रोज़ ऐसे ही स्टारबक्स में उसका एक चैप्टर लिख रही थी जब इतरां अपने ब्लैक-आउट से जूझने के लिए तिलिसमपूर जा रही थी। उस रोज़ आज की तरह ही स्टारबक्स में बैठे थे। ये इंदिरानगर ब्रांच था, यहाँ फर्स्ट फ्लोर पर ऊंची टेबल थी और आगे रेक्टैंगयुलर टेबल। बाहर कांच से शहर दिख रहा था। भागता हुआ। तभी अचानक से तिलिसमपूर के गाँव का वो आँगन दिखा जहाँ रूद्र दादी सरकार को बताने आया है कि वो इतरां को इलाज के लिए शहर ले कर जा रहा है। ठीक वहीं बड़ी सरकार ने देखा भय और उनके प्राण छूट गएयह मेरी आँखों के सामने घटा था। मैंने अपने जीवन में मृत्यु को इतने क़रीब से एक ही बार देखा था। यह काल्पनिक मृत्यु थी लेकिन जैसे सीने के बीच कोई तलवार घुंप गई। मैं फूट-फूट के रो पड़ी थी, जैसे किसी ने मेरे किसी अपने की मृत्यु का समाचार दिया हो। यह मेरे उपन्यास के प्लॉट में था ही नहीं। यह चैप्टर कहीं था ही नहीं। लेकिन मैं अपने किरदारों के हाथ इतनी बेबस थी कि चाह कर भी यह चैप्टर मूल उपन्यास से डिलीट नहीं कर सकती थी। मैंने उस चैप्टर को पूरा लिखा। उसके आगे का उपन्यास भी लिखा। लिखते हुए कितना कुछ भीतर महसूस होता है, हम इसे ठीक ठीक बता भी नहीं सकते। समझा नहीं सकते। कि उपन्यास ख़त्म करना एक लंबे रिश्ते को तोड़ कर आगे बढ़ जाना होता है। लेकिन ये ब्रेक-अप आसान नहीं होता। उपन्यास के किरदार आपके इर्द-गिर्द बने रहते हैं। 


और एक दिन अचानक से वे आपको छोड़ कर चले जाते हैं। मैं स्टेज पर थी। दिल्ली में। जो मेरा दुनिया का सबसे प्यारा शहर है। मैं अपनी कहानी पूरी तरह भूल गई। एकदम ब्लैंक। ऐसा कुछ दोस्तों के साथ एग्जाम टाइम में होता था कि पढ़े हुए सवाल दिमाग़ से उड़ गए। मेरे साथ कभी नहीं होता था। मुझे भूलना आता ही नहीं था। फिर मेरे बनाए किरदार तो मेरे भीतर रहते हैं, यहाँ से जाएँगे कहाँ। 


मैंने कहानी सुनानी शुरू कीऔर लगा जैसे मेले में हाथ छूट गया हो किसी का। इतरां, रुद्र, मोक्ष, दादी सरकारसब एक पानी की दीवार के पीछे थे। मुझे कुछ याद नहीं था। यह अब मेरी कहानी थी ही नहीं। मुझे हमेशा लगता था लिखना जादू है। की वाक़ई सरस्वती का आशीर्वाद है। वरना अच्छा-बुरा, कोई कहानी नहीं लिख सकते थे हम। लिखने से ज़्यादा मज़ा मुझे सिर्फ़ कहानी सुनाने में आता था। This was my forte, this was who I always was, a phenomenal storyteller. मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ हो कि मैं कोई क़िस्सा-कहानी सुना रही हूँ और सुनने वाले का ध्यान भटक जाये। एक जादू था जो मेरे भीतर रौशन हो जाता था। हम ख़ुद एक तिलिस्म, एक जादू, एक अचरज बन जाया करते थे। उस लड़की से मुझे बहुत प्यार था जो स्टेज पर कहानी सुनाने आती थी। 


उस रोज़ वो जादू टूट गया। 

कि जैसे बदन एक जादू भरा मर्तबान था और मेरे हाथ से गिर कर टूट गया और सारा जादू हवा हो गया। 


जादू तलाशना होता तो मुझे मालूम था कि कहाँ जा के खोजते हैंलेकिन जादू होना फिर से कैसे सीखते हैं। यह तो ख़ुद-बख़ुद होता था। मुझे यह करना नहीं आता। 


हम जादूगर नहीं थे, जादू थे। 


जादू करना सीख लेते, जादू होना कैसे सीखें। कहाँ से सीखें। मालूम नहीं। 


मुझे यह भीतर-भीतर खा रहा है। चाह के भी हम कुछ कर नहीं पा रहे। लिखने का मन करता है और कहीं दूर भाग जाने का। खूब घूमने का। दरिया किनारे। गंगा-किनारे। किसी मंदिर के फर्श पर बैठना सर टिकाये हुए। गाड़ी चलाते जाना, तेज और तेज।  पता नहीं, ये कभी फिर से होगा या नहीं। 


लेकिन काश कि हो पाये। 


कोई पुराना इंटरव्यू सुन रहे थे कहीं, आनंद बख्शी काउनकी एक कविता के अंत में आती है लाइन। यही उनकी किताब का शीर्षक भी हैपर लगता है, शायद यही दुआ हो आख़िर भी


मैं जादू हूँ, मैं चल जाऊँगा

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